पत्थर पानी बन जाता है
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सच है विपत्ति जब आती है
कायर को ही दहलाती है
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सौभाग्य न सब दिन सोता है
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जब नाश मनुज पर छाता है
पहले विवेक मर जाता है
यह वो पंक्तियाँ हैं जो अपने भीतर किसी का जीवन बदल देने की क्षमता रखती हैं।
और फिर जिस तरह गंगा की बहती अमर धारा देखकर किसी के भी मन में यह जिज्ञासा पैदा होती है कि ये आती कहाँ से है ..
उसी प्रकार इन पंक्तियों का सामर्थ्य देखकर यहाँ भी यही प्रश्न उभर आता है कि ये पंक्तियाँ हैं कहाँ से और लिखा किसने है...हम बेचैन हो उठते हैं वहाँ तक पहुँचने के लिए।
तो आज बताना चाहेंगे आज इन पंक्तियों की गंगोत्री का जन्म दिवस है।।
जी, आज महाकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' जी का जन्मदिवस है। 23 सितंबर 1908 को सिमरिया बिहार में अंतःकरण में क्रांति पैदा कर देने वाले इस कवि का जन्म हुआ था।
जीवन यात्रा में अनेकों उपलब्धियों से सज्जित..
जाने कितनी भीतर प्राणवायु भरने वाली रचनाओं को रचकर...
हिन्दी साहित्य जगत को संपन्नता प्रदान करने वाले... इस महाकवि की 24 अप्रैल 1974 को यात्रा पूरी हुयी।।
आज उनकी हर पंक्तियाँ उन्हें अमरत्व देती हैं। हर हिन्दी हृदय उनका सदन है। उनका लेखन भावी लेखकों का प्रेरणा स्त्रोत है।।
आज इस अवसर पर दिनकर जी के इस संक्षिप्त जीवन परिचय के साथ अब उनका परिचय उनके द्वारा रचित 'रश्मिरथी' के परिचय के माध्यम से कराना चाहूंगा।।
आज युवाओं को क्यों रश्मिरथी पढ़नी चाहिए। यह क्यों प्रासंगिक होनी चाहिए।
मैं अपने अनुभव के आधार पर इस विषय पर चर्चा करना चाहूंगा।
रश्मिरथी (Rashmirathi)
महाकवि दिनकर जी द्वारा रचित और लोकभारती प्रकाशन द्वारा प्रकाशित महाभारत के एक गौरव पात्र सूर्यपुत्र, महारथी कर्ण पर लिखा गया काव्य।
इसमें सात सर्ग (अध्याय) हैं।
जिसमें कर्ण के त्याग,उसकी दानवीरता,उसकी गुरु भक्ति, मित्र प्रेम, शौर्य, साहस,समर्पण को प्रस्तुत किया गया है।
इन अध्यायों में कर्ण की चर्चित जीवन घटनाओं का वर्णन है।
क्यों पढ़ा जाय?
महाभारत में कर्ण उन योद्धाओं में था जिनका जीवन संघर्षों से भरा रहा।सारी कीर्ति उनकी अपनी संजोयी थी।क्षत्रिय कुल का अंश होते हुए भी सूद पुत्र। संसार का सबसे बड़ा धनुर्धर बनने की बड़ी प्यास थी। जिसके लिए गुरु द्रोण शिष्य अर्जुन का पराजित होना जरूरी था।
।। इससे ऊपर महारथी कर्ण।।
आइये,रश्मिरथी के सर्गों का संक्षिप्त परिचय कराते हैं।हम समझेंगे कि क्यों पढ़ना चाहिए यह साहित्य।।
।।रश्मिरथी का प्रथम सर्ग।।
राजकुमारों (कौरव और पांडव) के गुरु दीक्षा के बाद शस्त्र कौशल दिखाने का आयोजन होता है। जिसमें कर्ण स्वयं को सबसे बड़ा धनुर्धर बताते हुए बीच सभा में अर्जुन को धनुर्विद्या की प्रतियोगिता में चुनौती देता है। लेकिन कर्ण के किसी राजवंश से न होने के कारण इस प्रतियोगिता में भाग लेने से रोका जाता है। तब दुर्योधन उसे अंगदेश का राज्य देकर उसे भाग लेने योग्य बनाता है।यहीं से कर्ण दुर्योधन को अपना परम मित्र और इस उपकार का ऋणी मान लेता है और आखिर समय तक साथ नही छोड़ता।
रश्मिरथी इसी घटना से शुरू होती है।
।।रश्मिरथी का द्वितीय सर्ग।।
महारथी कर्ण में अनेकों ऐसे गुण थे जिससे उसे कौरवों के पक्ष में होते हुए भी बड़े आदर और सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। भगवान श्री कृष्ण में भी जो चर्चा का विषय रहा करते थे।
कर्ण का एक गुण.. गुरु भक्ति का
ये कर्ण को सब सीखने के योग्य बनाता है।
उनके गुरु परशुराम जी उनसे बहुत प्रभावित थे। उन्होंने कई गूढ़ विद्याएँ उन्हें उनकी गुरु के प्रति आस्था और सेवा को देखकर बतायी थी। हालाकि जन्मकुल को छिपाये जाने के कारण परशुराम के क्रोध का भी सामना करना पड़ा था।
महाकवि दिनकर जी की रश्मिरथी के द्वितीय सर्ग में इसका वर्णन है। जो हमें इस घटना के साथ गुरुभक्ति की प्रेरणा से भरता है।
।।
रश्मिरथी का तृतीय सर्ग।।
यह सर्ग बड़ा चर्चित सर्ग है। भगवान श्री कृष्ण के विराट स्वरूप का वर्णन और भगवान का कर्ण से संवाद इस सर्ग को अधिक प्रभावी बनाते हैं।
हस्तिनापुर की सभा में दुर्योधन द्वारा पांडवों के शांति संदेश को अस्वीकार और फिर स्वयं शांति दूत बनकर आये श्री कृष्ण का अपमान..
दुर्योधन का यही व्यवहार श्री कृष्ण को सबक सिखाने के लिए विवश करता है।
और फिर सभा से बाहर आकर कर्ण को पांडवों की ओर से युद्ध करने के लिए कहते हैं। जिस प्रस्ताव को मित्रता के लिए कर्ण अस्वीकार कर देता है।
दिनकर जी ने अद्भुत वर्णन किया है श्री कृष्ण के विराट स्वरूप का और उनका कर्ण से संवाद का।
।। रश्मिरथी का चतुर्थ सर्ग।।
यह रश्मिरथी का बड़ा मार्मिक सर्ग है जिसमे कथा के अनुसार कर्ण की माँ कुंती यह बताने पहुंचती हैं कि वो उनका प्रथम पुत्र है और उसे पांडवों उसके भाई हैं।
यहाँ कर्ण और कुंती का संवाद जिस तरह दिनकर जी ने रचा है.. आप रो पड़ेंगे।
कर्ण की विवशता और मातृ मिलन यह सब शब्दों में व्यक्त कर पाना संभव नही है यह दिनकर जी ही कर सकते हैं।
।। रश्मिरथी का पंचम सर्ग।।
यह कर्ण की दानवीरता के बखान का सर्ग है और वह घटना जब इन्द्र भिक्षु का वेश धरकर कवच कुंडल का दान युद्ध में कमजोर करने हेतु लेने पहुँचते हैं।
यह दानवीरता की सबसे बड़ी परीक्षा थी कर्ण के लिए। और कर्ण इसमें सफल रहे।
और इस कृत्य देवराज इन्द्र बहुत शर्मिंदा हुए।
इस घटना का वर्णन करते हुए दिनकर जी आपको भाव विहल कर देते हैं।
।।रश्मिरथी का षष्ठ सर्ग।।
यह सर्ग हमें महाभारत युद्ध में खड़ा करता है। जहाँ कर्ण के शौर्य का वर्णन भगवान कृष्ण अर्जुन से करते हैं और युद्ध क्षेत्र का वह भयावह दृश्य दिनकर जी अपने शब्दों में सहज ही दिखा देते हैं।
।।रश्मिरथी का सप्तम् सर्ग।।
रश्मिरथी का अंतिम सर्ग। कर्ण के जीवन का भी अंतिम सर्ग।
जहाँ अर्जुन विजय की चाह लिए कर्ण अर्जुन पर टूटता है। लेकिन नियति वश रथ का पहिया टूट जाता है और फिर कथा से तो परिचित ही हैं हम कि पहिया लगाते हुए ही कर्ण के वध का भगवान आदेश दे देते हैं।
इसमें युद्ध में ही कर्ण और कृष्ण के बीच बड़ी तार्किक बहस है। भगवान कृष्ण उसे बताते हैं कि उसे निहत्था क्यों मारा जा रहा है। इस पर कर्ण भी कई बातें कहता है।जो आपको प्रभावित करेंगी।
यह सब पढ़ते हुए आपको ऐसा लगेगा कि टंकारों के बीच यह सब हो रहा है।
और इस तरह यह काव्य अपनी समाप्ति पर पहुँचता है।।।
सार स्वरूप दिनकर जी की यह अमर रचना 'रश्मिरथी ' हमें यह सिखाती है। -
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संघर्षों से कभी हार न मानने का भाव ।
-सीखने का भाव।
- कर्म का महत्व।
- अपने संकल्पों में दृढ़ता।
- प्रेम,भक्ति, मित्रता ।
यह कर्ण के जीवन की संघर्ष गाथा है और कर्ण के यह गुण मानव जीवन को श्रेष्ठ बनाते हैं और हम रश्मिरथी पढ़ते हुए हम कर्ण के इन अद्भुत गुणों से परिचित होते हैं जो हमें भी ऐसा होने के प्रयास के लिए प्रेरित करती है।
इसलिए हम युवाओं को यह साहित्य पढ़ना चाहिए। युवा ही नही बल्कि हर वर्ग।।
यह हर विपरीत परिस्थिति में हमें थामें रखेगा।।
एक बार फिर इस महान रचनाकार को शत् शत् नमन्।।
उनके पूरे गौरव कुल को नमन्।।।
।जय दिनकर।। जय रश्मिरथी।।