मन को रोका नही ....टोका जाना चाहिए 
सारा खेल मन का है मन खुश तो वही दुनिया बहुत सुन्दर ..
और मन खराब तो ठीक वही सब बेकार ..
लेकिन बात ये है कि यदि हम मन की ही सुनते रहे ...यदि बिना सोचे समझे उसकी हाँ में हाँ मिलाते रहे 
तो पता नही किसी दिन ये कहाँ उड़ा ले जाय ..
इसलिए जरुरी है कि हाँ उसी को कहा जाय जो हमारी आपकी गणित में ठीक ठाक बैठे ..
यह कविता इसी मन पर ही है ..
कविता पढ़ते हुए आप देखेंगे कैसे मन की उदासी से हम स्वयं को निकाल सकते हैं ..मन को बिना नाराज़ किये ...हहह 
मन को रोकना नही ..मन को टोकना सिखाएगी यह कविता ....


मन में भरी हताशा
चिन्ता और निराशा
बड़ी अजनबी भाषा
खोती जाती आशा। 

मैं बैठा सिरहाने
किस्से लगा सुनाने
आ गये गले लगाने
आलस और बहाने। 

सहसा निद्रा से जागा
कहाँ फंस गया तांगा
सब खूंटे से बाँधा
मन को लेकर भागा। 

अब मन न मेरी माने
मुझको लगा सताने
छोड़ो, दो मुझको जाने
अच्छे वही बहाने। 



फिर एक तरीका आया
कंधे पर हाथ टिकाया 
इधर उधर टहलाया। 

चलते चलते समझाया
गुस्सा क्यों है भाया
मैंने तो तुझे बचाया
सही राह पर लाया। 

वो आलस और बहाने
आये थे तुझे सुलाने
पथ बीच तुझे भरमाने
भटकाने और भुलाने। 

तब समझा वो भाषा
कोसों गयी निराशा
जाग उठी अभिलाषा
खोती जाती आशा

हरदम है यही कहानी
हरदम है खींचातानी
यूँ तो मन की मानी
पर मानी न मनमानी

मन को हरदम बाँधो
तन में इसको साधो
जब चाहो तब जागो
यही सफलता साधो !!
- संदीप द्विवेदी


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