जब कथा करवटें लेती हो

संदेश युद्ध का देती हो

अंधियारी जब भीतर की

हर उजियारा हर लेती हो

ऐसे में दीपक रखने वाले

क्यों अपने व्रत से ना डोले

परिवार ने तोड़ी सीमाएं

क्यों वचन भीष्म ने न तोड़े। 


धर्म की रक्षा करने वाला

अधर्म देख क्या सकता था? 

अजर सिंह के सम्मुख कोई 

इस तरह गरज क्या सकता था

पर जैसे दशरथ वचनों ने

राम का रथ वन को मोड़े

वैसे ही गंगा पुत्र भीष्म

अपने पंजों के नख मोड़े


वह तो कर्तव्यों में रत था

जीवन का एक यही व्रत था

सत्य असत्य विदित था पर

सत्य विरुद्ध खड़ा रथ था

मृत्यु जिसे वैकल्पिक थी

जिसको चाहे मारे छोड़े

लेकिन सत्य और व्रत हित

वो ख़ुद जीवन का रथ तोड़े


दुःख तो होगा उनको भी

क्यों ऐसी कठिन प्रतिज्ञा ली

पर स्वयं नाथ जब उतरे थे

कुछ बड़े न्याय की रचना थी

जब नियति नियंता वहीं रहे

मानव तप से मुख क्यों मोड़े

शायद सोच के ऐसा भी

वचन भीष्म ने ना तोड़े।। 


कितनी गाथाओं के प्रिय थे

गंगा के नीर सा बहते थे

स्थान कहाँ ना था उनका

वो कृष्ण हृदय में रहते थे

गंगा ने जैसे भेजा था

गंगा तक वैसे ही पहुँचे

था कौन दूसरा उस युग में 

जो इतना कुछ लेकर लौटे।।

- Sandeep Dwivedi

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